गरीब
पैरों में ना जुतें है ना तन पे अच्छे कपड़े ।
हमारी छावनी भी हैं टूटी, आसमान है दिखते।
आज भी हम दो वक़्त के रोटी के लिए दर दर है भटकते ।
हम है मुहताज किसी के हम अपने वश मे नहीं है
आज भी हम दो वक़्त के रोटी के लिए दर दर है भटकते ।
बिखर जाती हैं सपने सभी जो हम अपनी आखों से हैं देखते ।
सींचने की औकात नहीं है हमारी जो बीज हम खुद ही है बोते है।
हाथ सलामी है उठते सर ग़ुलामी मे झुकते हैं ।
आज भी हम दो वक़्त के रोटी के लिए दर दर है भटकते ।
बड़े घर के बड़े नखडे जो हम देखते हैं
टुट जाते हैं हम आज भी हम की हम क्यो नहीं कर पाते ।
दुसरे की खुशियाँ रच देते अपनी खुशियाँ क्यो नहीं लिख पाते
आज भी हम दो वक़्त के रोटी के लिए दर दर है भटकते हैं ।
दो -चार आसमान कदमों में गिर है जाते ।
हम तो बुनियाद के पत्थर है । बुनियाद के पत्थर गिने नहीं जाते।।
आज भी हम दो वक़्त के रोटी के लिए दर दर है ।
युवराज जानी