बस ख़ामोशी छाई थी
गुस्ताखियां जोरों पर थी
बदमाशियां गुस्ताख़ थी
सहमी हुईं नन्ही रोई थी
हम देख रहे थें
बस और कर
भी क्या सकते थे
नई ख़बरे आज आई थी
नई उसमें बात नही थी
उसूलों के सवाल थे
बस ख़ामोशी छाई थी
खून हमारा खौल रहा था
कागज़ो पे निकल रहा था
कही समय निकल रहा था
न्याय उसका गुज़र चुका था
वो बेसहारा देख रही थीं
हिम्मतों की ज़रूरत थी
खुद की बेसुर तान सुन रही थी
पर दुनिया में तब
बस ख़ामोशी छाई थी
बस ख़ामोशी छाई थी।
अब निकलना होगा
कभी तो जागना होगा
अंधकार से बस
उजाले की और
दौड़ना होगा।
कवि :हर्षल आलपे©